फिर वोट में कनवर्ट न हो सका अखिलेश का पॉलीटिकल-ग्लैमर
India Emotions, लखनऊ। साल 2017 में समाजवादी पार्टी मुखिया अखिलेश यादव की रैलियों में उमड़ी आपार भीड़ ने जीत का जो भ्रम पैदा किया वहीं इस बार के चुनाव में भी देखने को मिला। अखिलेश यादव ने न केवल प्रचार में पूरी ताकत झोंकी बल्कि अति उत्साहित भीड़ का उन्हें समर्थन भी मिला। …लेकिन ये सारा पॉलीटिकल ग्लैमर वोट में कनवर्ट न हो सका। हां, इतना तो अवश्य है कि अखिलेश के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी इस बार पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले तीन गुना सीटों पर जीत दर्ज की है। हालांकि बहुमत के जादुई आकड़े (202) से सपा काफी दूर रही। ये बात भले सपा के लिए राहत की बात रही कि वह पिछली बार की अपनी 47 सीटों से बढ़कर लगभग सवा सौ सीटों तक पहुंच गई है। ऐसे में पार्टी विधानसभा में एक मजबूत विपक्ष की भूमिका में सरकार पर दबाव बनाने की स्थिति में तो हो ही सकती है।
दूसरी ओर एक से दो सीटें पाने वाली कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के लिए ये सवाल और गंभीरता से खड़ा हो गया है कि उनका भविष्य क्या है और आने वाले वक्त में इन पार्टियों का महत्व कितनी बचेगा? सच पूछिये तो हर चुनाव के बाद हारने वाली पार्टियों को लेकर ऐसे सवाल उठते होते हैं और जीत की एक लहर के आगे ऐसी पार्टियां खुद को कुछ समय तक बेबस महसूस करती हैं। फिर आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला चलता हैं। ईवीएम की निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं और बाद में जनता के निर्णय के आगे सभी निरुत्तर हो जाते हैं। इस बार कुद ऐसा ही हुआ है।
ऐसे में क्या ये मान लेना चाहिए कि विपक्ष का टुकड़ों में होना एक बार फिर बीजेपी की जीत का फैक्टर बना। छोटी पार्टियों से दोस्ती करने के अखिलेश यादव के फार्मूला कारगर तो माना जाएगा लेकिन उसके लिए बीएसपी और कांग्रेस का साथ न आना या उन्हें दूर रखना घाटे के सौदा साबित हुआ।
यह तथ्य गौर करने वाला है कि भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियां 325 से खिसक कर पौने तीन सौ पर गिरीं हैं। इससे तो संदेश जाता है कि कहीं न कहीं जनता की नाराजगी भी सरकार से रही होगी। इसका फायदा भी कुछ समाजवादी गठबंधन को मिला है।
बहरहाल, संजीदगी से सोचने की जरूरत कांग्रेस और बसपा को है। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने मेहनत करने में कसर नहीं छोड़ी, जी-जान लगाया। पर सीटें पिछली बार की तुलना में चार और कम हो गईं। सात सीटों से सिमट कर वह दो पर आ गई। यही हाल बीएसपी को हुआ। स्वाभाविक है उप्र. में अब इन दोनों दलों के लिए पुन: खड़ा हो पाना आसान नहीं।
नतीजतन भविष्य में अगर कुछ उम्मीद है तो वह समाजवादी पार्टी से ही है। शर्त यह होगी कि वह अगली रणनीति के तहत अभी से प्रयास करें और 2024 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर बीजेपी को मजबूत टक्कर देने को तैयार हो जाएं।