बस मन में बैठ गई वो ऐतिहासिक अयोध्या फैसले की गुलाबी रात...

Nov 10 2019

बस मन में बैठ गई वो ऐतिहासिक अयोध्या फैसले की गुलाबी रात...
charbag railway station, lucknow: 12.30 pm night

इंडिया इमोशंस न्यूज, अजय दयाल, लखनऊ/नई दिल्ली। तारीख: 8 नवंबर 2019...स्थान: लखनऊ चारबाग रेलवे स्टेशन, प्लेटफार्म नम्बर-6-7, रात के 12 बजे चुके थे, दिल्ली जाने वाली सुहेलदेव एक्सप्रेस अभी प्लेटफार्म पर नहीं लगी थी। गुलाबी जाड़े के बीच रेलवे स्टेशन की परम्परागत गहमा-गहमी हरारत दे रही थी। ट्रेनों की आवाजाही का अनाउंसमेंट, यात्रियों-कुलियों की भागमदौड़, गरमागरम चाय बनाते वेंडर्स, टे्रन का सायरन... इन सब के बीच मेरा ध्यान कहीं और था, स्टेशन आने से पहले मैंने टीवी पर जो ब्रेकिंग न्यूज देखी थी वो जेहन में थी। अयोध्या पर फैसला कल सुबह (9 नवंबर) 10.30 बजे आयेगा- सभी स्कूल-कालेज बंद कर दिये गये हैं- धारा 144 लागू-देशभर में हाई सिक्योरिटी- कई राज्यों में इंटरनेट सेवाएं भी बंद, बेवजह घर से बाहर निकलने पर पाबंदी- वैगरह-वैगरह...।

 

इन खबरों के साथ-साथ एक और बात दिमाग में उमड़-घुमड़ रही थी। कल तो इलाहाबाद में भतीजे की शादी है, मैं तो दिल्ली जा रहा हूं लेकिन गुडग़ांव से बहन-बहनोई, लखनऊ से बड़े भईया और आगरा से भी भईया की फेमली इलाहाबाद को मूव करेगी। मेरी पत्नी-बच्चे भी पुराने लखनऊ में मेरी ससुराल में हैं, क्या सबकुछ ठीक रहेगा? अयोध्या मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कोई अनहोनी तो नहीं होगी यानि दंगा-फसाद? खबरों से अनजान पत्नी कहीं बच्चों के साथ चौक-नक्खास इलाकों में मार्केटिंग करने तो नहीं निकल जाएगी? क्या परिवार के लोगों का लखनऊ, आगरा, गुरुग्राम से सुप्रीम  कोर्ट के फैसले के बीच इलाहाबाद मूव करना ठीक रहेगा?

 

इस बीच पहला फोन मैंने लखनऊ वाले बड़े भईया को किया, पूछा टीवी देख रहे हैं? मुझे नहीं लगता कल इलाहाबाद जाना ठीक रहेगा, भईया भी बोले- बात तो सही है, देखते हैं कल क्या होता है। दूसरा फोन आगरा वाले भईया को मिलाया, नींद में थे बोले अब तो मैं नहीं जाऊंगा लेकिन मोना और विजय (बहन-बहनोई) की गुडग़ांव से कंफर्म ट्रेन है इलाहाबाद के लिए वो लोग तो जाएंगे ही। मैंने लंबी सी सांस ली और फोन कट कर दिया।

 

अब मेरे भीतर का पत्रकार सक्रिय हो गया था। साढ़े 12 बजे चुके थे, मेरी ट्रेन के प्लेटफार्म पर लगने का अनाउंसमेंट हो चुका था। मैंने तेजी से अपने आसपास नजर दौड़ाना शुरु किया, उद्देश्य माहौल का जायजा लेना का था। दौड़ती नजर के सामने तिलकधारी, भगवाधारी, बुर्कानशीं, मौलाना टाइप लोग सभी दिखे और सभी सामान्य, न कोई तनाव, न भय जैसा कुछ भी। अच्छा लगा देखकर, इस बीच मेरी ट्रेन लग चुकी थी और मैं कुछ ही पल में अपने सीट पर पहुंच चुका था।

 

सायरन बजाती ट्रेन अब दौड़ चुकी थी। मैंने घड़ी पर नजर डाली- 1 पीएम। यानि सिर्फ लगभग 10 घंटों में फैसला आ जाएगा। दिल में किंचित भय नहीं था, पत्रकारिता के कॅरियर में ऐसी स्थितियां कई बार देखी, महसूस की हैं। बहरहाल, मन सवाल करने लगा- फैसला हिंदूओं के पक्ष में होगा या मुस्लिम्स के? 6 दिसंबर 1992 जैसा तो कुछ नहीं होगा? सुबह दिल्ली पहुंचने पर कहीं कोई बड़ी खबर तो नहीं मिलेगी? पत्नी को फोन करके ट्रेन पर बैठ जाने की सूचना और कल कहीं बाहर बच्चों के साथ न निकलने की हिदायत देकर मैंने मोबाइल का नेट ऑन किया और सोशल मीडिया का जायजा लेने लगा, साथ ही इंतजार भी कि कब टीटी आये, कब मैं ठिकट चेक कराकर सो जाऊं। टीटी ले अपना काम किया और मैंने अपना- सो गया।

 

अचानक शोर से नींद खुल गई, यात्रियों के बीच जुबानी जंग चल रही थी। मैंने टाइम देखा, सुबह के पांच बज रहे थे। विवाद पता लगाने की कोशिश की तो पता लगा कि, किसी ने अपने मोबाइल पर लाइव टीवी लगाकर अयोध्या मुद्दे पर डिबेट देख रहा था, आवाज दूसरे यात्रियों के कानों में पड़ रही थी और इसी वजह से जुबानी जंग विवाद में तब्दील होने वाली थी। मेरे भीतर के पत्रकार ने मुझे एलर्ट किया। सामाजिक जिम्मेदारी का एहसास प्रबल हुआ। मैं उठा और मोबाइल पर टीवी चला रहे शख्स के पास पहुंचा, उसे समझाया कि वो न्यूज देखे पर इयर फोन लगाकर, और तनिक प्यार से नियम कनूनों का हवाला देकर एक नागरिक की जिम्मेदारी का अहसास भी कराया, बाकी लोगों को भी हाथ जोड़कर शांत रहने को कहा।
मामला जल्दी ही शांत हो गया, लेकिन मेरा न्यूज सेंस सक्रिय हो चुका था। ऐसी ही छोटी-छोटी बातें बड़े विवाद को जन्म दे देतीं हैं, माहौल फसादी हो जाता है, हिंदू-मुस्लिम हो जाता है और शिकार होती है शांतिप्रिय देश की छवि, तरक्की, इंसानियत। 9 बजे सबेरे मैं दिल्ल्ी पहुंच चुका था, सबकुछ सामान्य था। अब केवल एक से डेढ़ घंटे थे फैसला आने में। पहला फोन मेरी आठ साल की बेटी का आया, वो लखनऊ में अपनी नानी के घर टीवी देख रही थी, पूछा पापा सब ठीक है वहां? मैंने लगभग हंसते हुए जवाब दिया हां बेटा, क्या हुआ वहां का हाल बताओ? बेटी बोली पापा अब बस आधे घंटे में फैसला आ जाएगा, आप तुरंत अपने गेस्ट हाऊस पहुंच जाइये। मैंने कहा ओके बेटा, मैं तुरंत जा रहा हूं। मैं सोचने लगा विध्वंस की तारीख में तो बेटी ने जन्म भी नहीं लिया था पर टीवी न्यूज ने उसे कितना भयग्रस्त कर रखा है? मैं सोच रहा था- आम नागरिकों, परिवारों, बच्चों को भी ऐसी ही मन:स्थिति से गुजरना पड़ता होगा?