बात तो बस संवेदनशील होकर रास्ता निकालने की है...

Jan 25 2021

बात तो बस संवेदनशील होकर रास्ता निकालने की है...

India Emotions. एम्बुलेंस पर लेटे मरीज और उसके साथ बैठे तीमारदारों का उस वक्त बस एक ही ऊपर वाला होता है और वो है उस एम्बुलेंस का ड्राईवर। जितनी जल्दी और सुरक्ष्रित तरीके से वह दम तोड़ रहे मरीज को किसी अस्पताल तक पहुंचा देगा, उतनी उसको जीवित रखने की कोशिशों को बल मिलेगा। पर अफसोस… यह कोशिशें अगर अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दें तो? एम्बुलेंस के अस्पताल तक पहुंचने के बीच में अगर सबसे बड़ा रोड़ा कोई है, विलन है, दुश्मन है तो वह है सड़क जाम। जाम में फंसी सायरन बजाती एम्बुलेंस मानो मरीज के जान की भीख लोगों से चिल्ला-चिल्ला कर मांग रहती हो। पर जाम में खुद फंसे लोग भी क्या कर लें? कहां किनारे कर लें अपने-अपने वाहन जबकि जगह टस से मस न होने की हो। अब यहां जाम में जिंदगी फंसी रहती और एंबुलेंस जूझती रहती है।

अपने शहर में भी यह दृश्य आम हैं। इन दिनों जगह-जगह खुदी सड़कें आये दिन सड़क जाम का कारण बन रहीं हैं। बीती शाम का ही दृश्य देखिये- स्वस्थ्य भवन से शहीद स्मारक होते हुए हाथी पार्क तक जाने वाले रास्ते पर इस कदर ट्रैफिक जाम था कि पूछिये मत! इस जाम के आने और जाने वाले रास्ते पर दोनों ओर सायरन बजाती एक-एक एम्बुलेंस फंसी मानो बुरी तरह छटपटा रही हो। एक की दिशा केजीएमयू की ओर थी तो दूसरी की सिविल अस्पताल हजरतगंज की ओर। अब किस अस्पताल उन एम्बुलेंस को जाना था यह बात और है, लेकिन सांस लिए बगैर जिस तरीके से वह ‘चीख-चिल्ला’ रहीं थीं, उससे यह तो साफ था की दोनों में ही पड़े मरीज गंभीर स्थिति में थे। जाम में खुद फंसे संवेदनशील लोग बेचैन तो थे पर बेबस भी। करते भी तो क्या? अगर अपने वाहन से उतर कर ट्रैफिक हटाने में लगते तो उनके वाहन का क्या? जाम की वजह इस रोड पर हो रही सड़क की खुदाई के चलते थी।

जिंदगी की कीमती लम्हें यूं ही फिसलते रहे, लेकिन कौन किसकी सुनता है? इस बीच कुछ युवा लड़कों ने ट्रैफिक को जाम से निजात दिलाने की कोशिशें शुरु कीं। इन युवाओं की कोशिशें वाकई तारीफ-ए-काबिल थीं। वक्त तो लगा पर दोनों एम्बुलेंस जैसे-तैसे अपने-अपने गंतव्य की ओर रवाना हों गईं। देखा जाय तो ऐसा अपने शहर में अकसर होता है। सभी शहरवासियों की मानसिकता इन युवाओं की तरह संवेदनशील नहीं होंती। अब जल्दी तो सभी को अपने-अपने काम पर या घर पहुंचने की होती है। ऐसे में कहीं निकली एंबुलेंस रफ्तार पकड़ ही रही होती है कि, कोई बाइक वाला करतब दिखाता सामने से मुंह चिढ़ा निकल जाता है। असल में एम्बुलेंस के सामने चुनौती वक्त रहते पहुंचने की होती है, लिहाजा पूरा खेल रफ्तार का है। लेकिन कहीं बाइक वाला ओवरटेक कर गया, तो कहीं कोई कार बिल्ली की तरह रास्ता काट कर जल्दबाजी दिखा गई। कई बार एंबुलेंस के पीछे गाड़ियां चुंबक की तरह चिपकी चलती हैं, यह सोचकर कि जाम में ट्रैफिक की टेंशन खत्म हो जाए और एंबुलेंस है कि पहले रेड लाइट के ग्रीन होने का इंतजार करती रहती है। रेड लाइट ग्रीन हुई नहीं कि, दाएं-बाएं से गाड़ियां तीर की तरह निकलने लगतीं हैं।

इमरजेंसी का कोई कायदा कानून नहीं होता यह सोचकर एंबुलेंस अगर थोड़ी देर के लिए रॉन्ग साइड ले भी ले तो, बेतरतीब ट्रैफिक की वजह से यह कवायद भी बेकार जाती है। हालांकि यह भी सच नहीं कि हर कोई आगे निकलने की होड़ में होता है। कुछ लोग एम्बुलेंस को साइड दे भी देते हैं। ऐसे में कभी दाएं तो कभी बाएं काटकर निकलती एंबुलेंस के अंदर मौजूद मरीज और उसके घरवालों की हालत का अंदाजा लगाना आसान नहीं। जिसने इसे समझा उसने रास्ता दे दिया, लेकिन इस तरह की समझ रखने वाले भी न के बराबर ही हैं। आमतौर पर तो किसी की जान जोखिम में देखकर भी कोई एक पल रुकने पर तैयार नहीं होता। ये न सिर्फ उन लोगों की सोच पर सवाल उठाता है, बल्कि यह एहसास भी कराता है कि एंबुलेंस होने का क्या फायदा अगर वक्त पर इलाज ही न मिले?

बीते दिनों एक शहर के एसपी ने रास्ता निकालते हुए एक हेल्पलाइन नम्बर जारी किया। इसका उद्देश्य था कि, कोई भी नागरिक जहां भी एम्बुलेंस को जाम में फंसा देखे तुरंत इस हेल्पलाइन नम्बर पर फोन करे ताकि पुलिस-क्यूआरटी टीम मौके पर पहुंच कर अपने फर्ज को अंजाम दे सके। बहरहाल, शहर में जगह-जगह सड़क जाम को देखते हुए सड़क पर रेंगती एंबुलेंस की बात समझिये तो हकीकत डराती है। कायदे से सड़क की खुदाई से पहले ऐसे कार्यों की जिम्मेदार अथॉरिटी अथवा व्यक्ति को इस बात की शपथ लेनी चाहिये कि उनके इस कार्य से एम्बुलेंस के रास्ते में कोई बाधा नहीं आएगी। मेट्रो के निर्माण कार्यों के दौरान तो ऐसा नहीं हुआ था? अस्थायी ब्रिज भी तो बन सकता है? बात तो बस संवेदनशील होकर रास्ता निकालने की है।